भोपाल। यौन उत्पीड़न पीड़ितों की जांच में मानवीय पहलू का ध्यान देना जरूरी है। यह विक्टिम को जांच के दौरान री विक्टिम बनने से बचाता है। यही नहीं, मजबूत साक्ष्य प्रदान करने में भी मदद करता है। यह बातें एम्स भोपाल के फॉरेंसिक मेडिसिन एवं टॉक्सिकोलॉजी विभाग के प्रोफेसर डॉ. राघवेंद्र कुमार विदुआ ने अपनी रिपोर्ट में कहीं। जिसे उन्होंने लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी (केजीएमयू) में राष्ट्रीय कार्यशाला में प्रस्तुत किया। इस दौरान डॉ. विदुआ को यौन उत्पीड़न पीड़ितों की जांच में नैतिक और संवेदनशील प्रथाओं को बढ़ावा देने के लिए सम्मानित भी किया गया।
एम्स के निदेशक डॉ. अजय सिंह ने कहा कि डॉ. विदुआ के इस योगदान से इस जांच से जुड़े स्वास्थ्य पेशेवरों में नैतिकता और संवेदनशीलता को बढ़ावा मिलेगा। जो यह सुनिश्चित करने में मदद करेगा कि पीड़ितों को गरिमापूर्ण देखभाल मिले। डॉ. विदुआ ने नैतिक के साथ कानूनी पहलुओं को भी शामिल किया है। जिसमें मुख्य रूप से गोपनीयता, निजता, स्वायत्तता और पीड़ितों की गरिमा पर जोर दिया गया है।
डॉ. विदुआ की रिपोर्ट के मुख्य बिंदु
बयान ऑन कैमरा होना चाहिए। चिकित्सीय परीक्षण कक्ष में पुलिस भी न हो।
अस्पताल में ऑडिटरी प्राइवेसी की व्यवस्था हो। यानी अंदर की आवाज बाहर ना जाए।
बाहरी और आंतरिक परीक्षण से पहले पीड़िता की सहमति जरूर लें। जरूरी हो तो काउंसलिंग करें।
पीड़ित की उम्र 18 वर्ष से कम होने पर परिजनों की सहमति जरूर लें।
अपराधी अगर परिजन है तो चाइल्ड केयर समिति को शामिल करना जरूरी है।
शांत और संयमित तरीके से बयान लिया जाए।
टू फिंगर टेस्ट पर बैन है। इसका ध्यान रखें।